बदलते रिश्तों के हर एक मंजर देखा है
हरे भरे हुआ करते थे जो ज़मीन कभी अब उन्हें बंजर देखा है
गैरो से तो क्या ही शिकायत होती है यहाँ
हमने तो अपनों के हाथो में खंजर देखा है
पत्थर हुए कुछ रिश्ते इस कदर फिर पिघल न सके
उलझे इन ख्वाइशे के भॅवर में कुछ यु की फेर सुलझ न सके
नशा बी उनकी बातों का यूँ चढ़ा की फिर संभल न सके
कसूरवार वो न थे जो बदल गए वक़्त के साथ
गुनाह तो हमारा था तो जो बदलती दुनिया में हम बदल न सके
चलो मन खता मेरी थी मुझे मंजूर है
हु एक आइना में अपनी इस बात पर मुझे बड़ा गुरूर है
हुई हो अब जाकर आज़ाद सब दिखावे के रिश्तों से
अब न ही कोई जी हुज़ूरी है न ही कोई जी हुज़ूर है ......
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